उपनिषद का उद्देश्य विद्यार्थियों के हित में काम करना ,उन्हें नई दिशा देना ,उनकी समस्याओं का समाधान

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गुरुवार, 2 जनवरी 2014

नागार्जुन (३० जून १९११-५ नवंबर १९९८)मैथिली और हिन्दी के अप्रतिम लेखक और कवि थे। उनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ कीं। इनके पिता श्री गोकुल मिश्र तरउनी गांव के एक किसान थे और खेती के अलावा पुरोहिती आदि के सिलसिले में आस-पास के इलाकों में आया-जाया करते थे। उनके साथ-साथ नागार्जुन भी बचपन से ही “यात्री” हो गए। आरंभिक शिक्षा प्राचीन पद्धति से संस्कृत में हुई किन्तु आगे स्वाध्याय पद्धति से ही शिक्षा बढ़ी। राहुल सांकृत्यायन के “संयुक्त निकाय” का अनुवाद पढ़कर वैद्यनाथ की इच्छा हुई कि यह ग्रंथ मूल पालि में पढ़ा जाए। इसके लिए वे लंका चले गए जहाँ वे स्वयं पालि पढ़ते थे और मठ के “भिक्खुओं” को संस्कृत पढ़ाते थे। यहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली।

प्रकाशित कृतियाँ
छः से अधिक उपन्यास, एक दर्जन कविता-संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली;(हिन्दी में भी अनूदित) कविता-संग्रह, एक मैथिली उपन्यास, एक संस्कृत काव्य "धर्मलोक शतकम" तथा संस्कृत से कुछ अनूदित कृतियों के रचयिता।कविता-संग्रह - अपने खेत में, युगधारा, सतरंगे पंखों वाली, तालाब की मछलियां, खिचड़ी विपल्व देखा हमने, हजार-हजार बाहों वाली, पुरानी जूतियों का कोरस, तुमने कहा था, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, इस गुबार की छाया में, ओम मंत्र, भूल जाओ पुराने सपने, रत्नगर्भ।उपन्यास- रतिनाथ की चाची, बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, नयी पौध, वरुण के बेटे, दुखमोचन, उग्रतारा, कुंभीपाक, पारो, आसमान में चाँद तारे।व्यंग्य- अभिनंदननिबंध संग्रह- अन्न हीनम क्रियानामबाल साहित्य - कथा मंजरी भाग-१, कथा मंजरी भाग-२, मर्यादा पुरुषोत्तम, विद्यापति की कहानियाँमैथिली रचनाएँ- पत्रहीन नग्न गाछ (कविता-संग्रह), हीरक जयंती (उपन्यास)।बांग्ला रचनाएँ- मैं मिलिट्री का पुराना घोड़ा (हिन्दी अनुवाद)ऐसा क्या कह दिया मैंने- नागार्जुन रचना संचयन

नागार्जुन के काव्य में अब तक की पूरी भारतीय काव्य-परंपरा ही जीवंत रूप में उपस्थित देखी जा सकती है। उनका कवि-व्यक्तित्व कालिदास और विद्यापति जैसे कई कालजयी कवियों के रचना-संसार के गहन अवगाहन, बौद्ध एवं मार्क्सवाद जैसे बहुजनोन्मुख दर्शन के व्यावहारिक अनुगमन तथा सबसे बढ़कर अपने समय और परिवेश की समस्याओं, चिन्ताओं एवं संघर्षों से प्रत्यक्ष जुड़ा़व तथा लोकसंस्कृति एवं लोकहृदय की गहरी पहचान से निर्मित है। उनका ‘यात्रीपन’ भारतीय मानस एवं विषय-वस्तु को समग्र और सच्चे रूप में समझने का साधन रहा है। मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान भी उनके लिए इसी उद्देश्य में सहायक रहा है। उनका गतिशील, सक्रिय और प्रतिबद्ध सुदीर्घ जीवन उनके काव्य में जीवंत रूप से प्रतिध्वनित-प्रतिबिंबित है। नागार्जुन सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने आधुनिकतम कवि हैं।[४] जन संघर्ष में अडिग आस्था, जनता से गहरा लगाव और एक न्यायपूर्ण समाज का सपना, ये तीन गुण नागार्जुन के व्यक्तित्व में ही नहीं, उनके साहित्य में भी घुले-मिले हैं। निराला के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने इतने छंद, इतने ढंग, इतनी शैलियाँ और इतने काव्य रूपों का इस्तेमाल किया है। पारंपरिक काव्य रूपों को नए कथ्य के साथ इस्तेमाल करने और नए काव्य कौशलों को संभव करनेवाले वे अद्वितीय कवि हैं। उनके कुछ काव्य शिल्पों में ताक-झाँक करना हमारे लिए मूल्यवान हो सकता है। उनकी अभिव्यक्ति का ढंग तिर्यक भी है, बेहद ठेठ और सीधा भी। अपनी तिर्यकता में वे जितने बेजोड़ हैं, अपनी वाग्मिता में वे उतने ही विलक्षण हैं। काव्य रूपों को इस्तेमाल करने में उनमें किसी प्रकार की कोई अंतर्बाधा नहीं है। उनकी कविता में एक प्रमुख शैली स्वगत में मुक्त बातचीत की शैली है। नागार्जुन की ही कविता से पद उधार लें तो कह सकते हैं-स्वागत शोक में बीज निहित हैं विश्व व्यथा के।[५] भाषा पर बाबा का गज़ब अधिकार है। देसी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय पदावली तक उनकी भाषा के अनेकों स्तर हैं। उन्होंने तो हिन्दी के अलावा मैथिली, बांग्ला और संस्कृत में अलग से बहुत लिखा है। जैसा पहले भाव-बोध के संदर्भ में कहा गया, वैसे ही भाषा की दृष्टि से भी यह कहा जा सकता है कि बाबा की कविताओं में कबीर से लेकर धूमिल तक की पूरी हिन्दी काव्य-परंपरा एक साथ जीवंत है। बाबा ने छंद से भी परहेज नहीं किया, बल्कि उसका अपनी कविताओं में क्रांतिकारी ढंग से इस्तेमाल करके दिखा दिया। बाबा की कविताओं की लोकप्रियता का एक आधार उनके द्वारा किया गया छंदों का सधा हुआ चमत्कारिक प्रयोग भी है।

गुरुवार, 22 मार्च 2012

विवेकानंद का विश्व प्रसिद्द भाषण

विवेकानंद का विश्व प्रसिद्द भाषण

मोहित गौतम पंछी के फेसबुक नोट से साभार

11सितम्बर 1893 विश्व धर्म संसद शिकागो

विवेकानंद का विश्व प्रसिद्द भाषणअमेरिका के भाइयों और बहनों, जो आपने हमारा ससम्मान स्वागत किया, इसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ विश्व के सबसे प्राचीन संत की तरफ से.

मैं आपको धन्यवाद देता हूँ सभी धर्मो की माँ की तरफ से.

मैं आपको धन्यवाद देता हूँ करोड़ो विभिन्न जाती के और संप्रदाय के हिन्दुओं की तरफ से.

मैं उनको भी धन्यवाद देना चाहता हूँ यहाँ उपस्थित सभी लोगों को जाये आये हैं हमें अपने देश की संस्कृति और धर्म के बारे में हमें बताने.

मुझे गर्व है की मैं एक ऐसे धर्म से हूँ जिसने दुनिया को सिखाया-बताया धर्म और सर्वयापी सत्य के बारे में.

हम हिन्दू न न सिर्फ सर्वव्यापी सत्य में विश्वास रखते हैं बल्कि सभिधार्मो में विशवास रखते हैं.

मुझे गर्व है की में ऐसे देश की संतान हूँ जिसने विभिन्न देशो से निकले गए लोगों को न सिर्फ अपने देश शरण दी बल्कि उनको उनके धर्मो सहित गले से लगाया.

मुझे गर्व है ये बताने में की जब यहूदियों को उनके मूल देश से उन्हें निकाल दिया तब दक्षिण भारत ने उनको शरण दी न सिर्फ जमीन दी बल्कि उनके पूजा स्थल भी बनवाये और उनको भी उसी तरह सम्मान दिया जैसे की अपने देव-देवियों को. जबकि रोमन आक्रान्ताओं ने न सिर्फ

उनके पूजा स्थल -मंदिर तोड़ डाले बल्कि उनके धर्म ग्रन्थ भी जला दिए.

मैं एक बात आपको बताना चाहता हूँ जैसे की मैं और मुझसे पहले और भी बहुत से भारत के संतो ने कहा है की जैसे अलग-२ नदियाँ एक ही सागर में आके मिलती हैं ऐसे ही सारे सीधे-तिरछे रस्ते जिन पर मानव चलता है अंत में एक ही इश्वर से जा के मिलता है. मैं गीता के माध्यम से बताना चौंगा जो की इस बात का विश्वव्यापी प्रमाण है

” जो भी मेरे पास आता है वो कोई भी हो कैसा भी हो और कहीं से भी हो, अंत में मैं उस तक पहुँच ही जाता हूँ. वो चाहे कोई भी मार्ग चुने मुझसे मिलने के लिए वो मार्ग अंत में मुझसे मिल ही जाता है”

विभिन्न मान्यता वाले लोग, किसी और को न मानने वाले लोग, मानव से मानव में भेद करने वाले लोग, कट्टरता से अंधे लोग सभी एक ही प्रथ्वी के रहने वाले हैं.

वे लोग जिन्होंने प्रथ्वी को मानव रक्त से लाल किया, सभ्यताएं नष्ट कर दी, पुरे के पुरे देश मिटा दिए गए, इस तरह के राक्षस दुबारा से नहीं हों इसके लिए मानव समाज को आज से बहुत आगे आना चाहिए और यही वो समय है जब हम सभी एक लक्ष्य के लिए बजे अलग-२ विचारों को दुसरो पर थोपने (तलवार या कलम से ) की बजाये,मानव से मानव के बीच के अविश्वास को धीरे-२ ख़त्म कर देना चाहिए.